शनिवार, 6 फ़रवरी 2016

सजायाफ्ता है हम भी, सफ्फाक उस नजर के ।

बस चल रही है जिंदगी, उस रब के नाम पर ।
उम्मीद है सुबह की,  भरोसा  है  शाम  पर ।।

घर की दर-ओ-दीवार पर, ये मेहरबां है आसमां,
कोई छत नहीं है दोस्तो ,  मेरे  मकान  पर ।।
 
मुतमईन हूँ मैं, दर्द की  दासतां  दबी  होगी,
देखो फूल भी ,मुरझा  गये है इस निशान पर ।।

वो बेमुराद माज़ी , जब जब भी याद आया,
तड़फा मैं बेतहाशा,  खुद के अंजाम पर  ।।

सजायाफ्ता है हम भी, सफ्फाक उस नजर के,
मेरी जल रही जमीं , है  धुआं  आसमान पर  ।।

कयामत के रोज वर्क से, कोई नहीं बचेगा,
कुछ हो चुके मुखातिब , कुछ है निशान पर ।।

                     ------मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'



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