शनिवार, 30 जनवरी 2016

गज़ल , गीत, कविता कुछ भी समझें

मेरे दोस्त बिल्कुल भी, गद्दार नहीं है।
पर ये बात भी सही है, बफ़ादार नहीं है।।

हमको तो खुद ही चलना है, तारीक़ राह पर,
इन बस्तियों में मेरे, मददगार नहीं है।।

महफूज़ है पत्थर, सबूत मेरी सजा के,
हकीकत हम जिस सजा के, गुनहगार नहीं हैं।

फूँके कदम फिर भी गिरे , एहसास तब हुआ,
हम  दुनिया की दौड़  में अभी, होशियार नहीं हैं।

डाल दी  कस्ती मैंने ,उस  तेज धार में,
अफ़सोस  मेरे  हाथ में, पतबार नहीं है ।

कब तक मदद करेगा, भगवान भी हमारी,
क्या  उसका खुद का कोई , घरवार नहीं है ?

मैं तो गाये जा रहा था, हर दर्द ,दर -व-दर,
गनीमत रही खुदा कि  ये बाजार नहीं है ।


                          --------मनीष प्रताप सिंह 'मोहन '


रचना कैसी लगी? कमेंट अवश्य करें।

कोई टिप्पणी नहीं: