मंगलवार, 27 जून 2017

किसी के बाप का कर्जा किसानों पर नहीं बाकी,

किसां जो रोटियां देता, जमाने भर को खाने की।
उसी के अन्न पर पलकर, करो बातें जमाने की।

किसी के बाप का कर्जा किसानों पर नहीं बाकी,
तुम्हारी पीढियां कर्जे में है, हर एक दाने की ।। 

लहू से सींचकर खेतों को, जो जीवन उगाता है,
जरा सी रोशनी देदो, उसे भी आशियाने की।।

खुदाओं की तरह, मेरी  अकीदत के जो वारिस है,
उन्हें आदत निराली है, हमें अक्सर रुलाने की ।।

मुझे कोई भी मुझ जैसा, मनाने वाला  हो 'मोहन'
ये ख्वाहिश है हमारी भी, कि थोड़ा रूठ जाने की ।।

ये गहरे जख्म रूहों पर, उमर भर के लिए आँसू,
यही कीमत चुकाई है, जरा सा मुस्कराने की ।।

शराफत के उसूलों पर, गुजारिश है कि जीने दो,
हमें भी क्या जरूरत है, तुम्हारे घर🏠 जलाने 🔥🔫की ।।

                        ------मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'
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बुधवार, 11 जनवरी 2017

ले चलो मुझे इस फनाह संसार से।

ले चलो मुझे इस फनाह  संसार से।
सिंधु के उस पार को, इस पार से।।

कलियाँ बनकर पुष्प, आखिर झड़ रही,
वक्त की इस बेरहम, तलवार से ।।

हूँ   तड़प   उठता ,  अकेले  में  कभी,
क्या मिलेगा जिंदगी के , सार से।।

यूँ तो काफी लोग मुझको, जानते
खुद ही हूँ अनभिज्ञ मैं , पहचान से,

करते है हमदर्द, जख्मों की दवा
मरहम देते है, नोक-ए-तलवार से।।

सुन तो रक्खा है ,मगर अब देखना,
हँस के जाते सब तेरे, दरबार से ।

'मोहन' तेरी भी, गुजर होगी नहीं,
दरबाजे को खोज, हट दीवार से।।

         ------✒© मनीष प्रताप सिंह
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