रेगिस्तान के किसी कोने में
बनाया हुआ है मैंने
अपना एक छोटा सा घर
जिसमें चारो ओर
खिड़कियाँ और दरवाजे ही हैं।
उस घर में लगा रखी है
एक तस्वीर
और एक गुलदस्ता
हवा के आवारा झोके
उसमें होकर
यूँ निकल जाते हैं
जैसे कि कुछ है ही नहीं
और छोड़ जाते है
साथ लायी हुई धूल की चादर
जो कि परत दर परत
छायी जा रही है
और धूसरित होता जा रहा है गुलदस्ता
धुँधली होती जा रही है वह तस्वीर ।
-----मनीष प्रताप सिंह 'मोहन'
कृपया टिप्पणी के माध्यम से अपनी अनुभूति को व्यक्त अवश्य करें।
आपकी टिप्पणियाँ हमारे लिये अति महत्वपूर्ण है।
बनाया हुआ है मैंने
अपना एक छोटा सा घर
जिसमें चारो ओर
खिड़कियाँ और दरवाजे ही हैं।
उस घर में लगा रखी है
एक तस्वीर
और एक गुलदस्ता
हवा के आवारा झोके
उसमें होकर
यूँ निकल जाते हैं
जैसे कि कुछ है ही नहीं
और छोड़ जाते है
साथ लायी हुई धूल की चादर
जो कि परत दर परत
छायी जा रही है
और धूसरित होता जा रहा है गुलदस्ता
धुँधली होती जा रही है वह तस्वीर ।
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