गुरुवार, 28 अप्रैल 2016

बन्द कमरे में अकेला, और मैं करता भी क्या,

दोस्तों के इस जहां में,दोस्ती ढूँढें कहाँ,
दोस्त जैसे है बहुत , पर दोस्त भी मिलता नहीं।

कारवां से दूर हो ,तन्हा रहा मैं इन दिनों,
वक्त की थामी सुई , पर वक्त भी रुकता नहीं।

पास आती सब आवाजें, दूर ही जाती गई,
एक भी तिनका बचा होता, तो मैं झुकता नहीं।

हर सवेरा, शाम होकर, रात में दम तोड़ देता,
टूटती उम्मीद पर अंजाम ,कछ मिलता नहीं।

आँसू भरी हर आँख में,खुशियाँ दिखाना शौक है,
पर उजाले में मेरा आँसू, कभी दिखता नहीं।

बन्द कमरे में अकेला, और मैं करता भी क्या,
लिखना न होती बेबसी, तो अश्क भी लिखता नहीं।



                               -----मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'
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