मंगलवार, 28 जून 2016

किसी जिंदगी का दीपक, बुझाना नही कभी।

दबे  दर्द  से  पर्दा , उठाना  नहीं  कभी।
जख्मों को इस तरह से, दुःखाना नहीं कभी।

कोई आँसू तेरे लिए , सजा न बन जाए ,
'मोहन' को इस तरह से,  सताना नहीं कभी।

ऐ खुदा मांगू दुआ, फरियाद करता हूँ,
मेरे जख्मों का बदला उनसे, चुकाना नहीं कभी।

साविके दस्तूर तुम , मय्यत पर मेरी आओगे,
निशां जुल्म-ए-सफ्फाक के, बताना नहीं कभी।

कब्रों में रहने वाले भी, सिसकेंगे रो पड़ेंगे,
 कब्रगाह में गज़ल मेरी, गाना नहीं कभी।

महल की दिवालियों में , शिरकत के वास्ते, 
किसी जिंदगी का दीपक, बुझाना नही कभी।



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