शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2016

अब खून भी बहता नहीं, और जख्म भी बढते गये ।

वक्त का हर  ज़िक्र मैं, लिखता चला गया ।
हर रंज-ओ-ग़म  को आप ही, सहता चला गया ।।

इस रास्ते के दरम्यां, शायद कहीं पर छाँव हो,
'मोहन ' भरम की धूप में, जलता चला गया ।।

उन बस्तियों में आग सी, लगती चली गयी,
हवा में मेरा ज़िक्र कुछ, बहता चला गया ।।

सुकूं और मेरे दरम्यां, मुद्दत के फासले है,
थी साजिश-ए-किस्मत ,मैं  बिखरता चला गया ।।

इंसान को इंसान तो समझते थे लोग तब,
अफ़सोस है वह वक्त भी, गुजरता चला गया ।।

अब खून भी बहता नहीं, और जख्म भी बढते गये,
और दर्द शायरी में  , उतरता चला  गया ।।
                            
                    ------मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'



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