मंगलवार, 28 जून 2016

किसी जिंदगी का दीपक, बुझाना नही कभी।

दबे  दर्द  से  पर्दा , उठाना  नहीं  कभी।
जख्मों को इस तरह से, दुःखाना नहीं कभी।

कोई आँसू तेरे लिए , सजा न बन जाए ,
'मोहन' को इस तरह से,  सताना नहीं कभी।

ऐ खुदा मांगू दुआ, फरियाद करता हूँ,
मेरे जख्मों का बदला उनसे, चुकाना नहीं कभी।

साविके दस्तूर तुम , मय्यत पर मेरी आओगे,
निशां जुल्म-ए-सफ्फाक के, बताना नहीं कभी।

कब्रों में रहने वाले भी, सिसकेंगे रो पड़ेंगे,
 कब्रगाह में गज़ल मेरी, गाना नहीं कभी।

महल की दिवालियों में , शिरकत के वास्ते, 
किसी जिंदगी का दीपक, बुझाना नही कभी।



....ये रचना आपको कैसी लगी? कमेंट के माध्यम से अवश्य बतायें। आपकी टिप्पणियाँ हमारा मार्गदर्शन करेंगी।

शनिवार, 4 जून 2016

कई बेगुनाह खून , चिरागों का हो गया।

वो दूर जाके चाँद, सितारों सा हो गया।
मैं काँच सा टूटा तो, हजारों सा हो गया।

हालांकि दरम्यां में बहुत, फासला न था,
दरिया सी जिंदगी के, किनारों सा हो गया।

इस वक्त ने कुछ जा़म, पिलाये है इस कदर,
हर कतरा जिंदगी का, शराबों सा हो गया।

वो बादशाही आँखें, ख्वाब-ए-सल्तनत का हश्र,
वीरान  हवेली  के ,  नजारों सा हो  गया।

जब रोटियों की तलब में मायूसियां मिलीं,
किरदार जमाने में  ,  गुनाहों सा हो  गया।

अब तो तुम्हारे महल में,  कुछ रोशनी सी है ,
कई   बेगुनाह   खून , चिरागों  का  हो  गया।

ईजाद क्या किया है, इबादत का ये  हुनर,
रब  मंदिरों की  चंद,  दिवारों  सा  हो गया।


                               -----मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'
कृपया टिप्पणी के माध्यम से अपनी अनुभूति को व्यक्त अवश्य करें। 
आपकी टिप्पणियाँ हमारे लिये अति महत्वपूर्ण है।