गुरुवार, 28 अप्रैल 2016

बन्द कमरे में अकेला, और मैं करता भी क्या,

दोस्तों के इस जहां में,दोस्ती ढूँढें कहाँ,
दोस्त जैसे है बहुत , पर दोस्त भी मिलता नहीं।

कारवां से दूर हो ,तन्हा रहा मैं इन दिनों,
वक्त की थामी सुई , पर वक्त भी रुकता नहीं।

पास आती सब आवाजें, दूर ही जाती गई,
एक भी तिनका बचा होता, तो मैं झुकता नहीं।

हर सवेरा, शाम होकर, रात में दम तोड़ देता,
टूटती उम्मीद पर अंजाम ,कछ मिलता नहीं।

आँसू भरी हर आँख में,खुशियाँ दिखाना शौक है,
पर उजाले में मेरा आँसू, कभी दिखता नहीं।

बन्द कमरे में अकेला, और मैं करता भी क्या,
लिखना न होती बेबसी, तो अश्क भी लिखता नहीं।



                               -----मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'
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गुरुवार, 21 अप्रैल 2016

तकब्बुर है शहर वालों को,खुद के शऊर पर (गज़ल)



माना कि तेरे शहर का,मौसम नया तो है।
मयस्सर हमारे गाँव में ,ताजा हवा जो है।

तकब्बुर है शहर वालों को,खुद के शऊर पर,
मुतमईन हूँ मैं गांव में, शर्म-ओ-हया तो है ।

हालांकि मेरी पहुँच से, वो दूर है  मगर ,
उस आसमां से कह दो, मेरा हौसला जो है।

वो चल चुके पटाखे, और बुझ चुके दिये ,
पाकर किसी गरीब का, बच्चा हँसा तो है।

अपने स्वार्थों के साँचों में,खुदाओं को ढालकर,
करता गुनाह आदमी , लाँछन खुदा  को है ।

इन्सानियत की मौत पर,कोई आँख तक न गीली हो,
'मोहन'नये जमाने  को, कुछ  हो  गया  तो  है ।

कभी शब्द रो दिए, तो कभी रो गईं मेरी आँखें,
ग़म और मेरे दरम्यां, कुछ सिलसिला तो है



                               -----मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'
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शनिवार, 16 अप्रैल 2016

अरे!अब तो मत छिपाओ, उजले कफन से ढक कर (गजल)

किस गम के गीत गाऐं ,किसको वयाँ करें।
शिकवों का जाम आखिर ,कब तक पिया करें।।

ये है यकीं कि खाक से ,मोती  नहीं निकलते,
पर खाक भी न छानें, तो करें भी तो क्या करें।

हमको हुआ मयस्सर , जीवन कबाड़खाना,
मैदान में रहते है , तूफाँ से  क्या  डरें ।

महफूज कर लिया है, मैंने प्रत्येक पत्थर,
हर फूल के बदले में पाया है, क्या   करें  ।।

खुदगर्ज है जमाना, खुदगर्ज दोस्ताना ,
खुद्दार जिंदगी है , 'मोहन'  की  क्या करें। ।

अरे!अब तो मत छिपाओ, उजले कफन से ढक कर
निशानों को कहने दो  , वे जो  कुछ वयाँ  करें।।




               .    ------मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'
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रविवार, 10 अप्रैल 2016

जो सबका 'अन्नदाता' है, जहर खाते हुये देखा।

मैंने खेतों में उम्मीदों को, पल जाते हुये देखा।
उन्हीं खेतों में उम्मीदों को, जल जाते हुये देखा।

वो ढलती शाम में खेतों की, मेंढों पर टहल करके,
किसी शायर को खेतों की, गजल गाते हुये देखा।

जमाने को नजर आया है, मंगल तक गया भारत,
जो सबका 'अन्नदाता' है, जहर खाते हुये देखा।

थी रुसवा मुफलिसी मेरी, शरीफों के जमाने में,
वफा हमदर्द लोगों की , बदल जाते हुये देखा।

जो हरदम साथ रहते थे, वो आँसू बेवफा निकले,
रखे महफूज आँखों में, निकल जाते हुये देखा ।

हमारी कोशिशें थी कुछ, खुदा की मेहरबानी थी,
जो आतिस गीर था 'मोहन', सम्हल जाते हुये देखा।

                            

                               -----मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'
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