मैं भीड़ में भी हूँ, और तन्हाइयाँ भी है ।
आसान नहीं जिंदगी, कठिनाइयाँ भी है ।
यादों की शाम सजाकर , बैठा मैं चाँद पर,
बादल घिरे अतीत के, पुरवाइयाँ भी है ।
जमाने की चकाचौंध, दिखावे है रोशनी के,
जितनी चमक गहरी ,घनी परछाइयाँ भी है ।
दुनियाँ की नजर में फकत, मुस्कान मेरी आ सकी,
अंदर दबे है दर्द , और रुसवाइयाँ भी है ।
टुकड़ों की जिंदगी कभी , मुकम्मल न हो सकी,
दरारें ही नहीं , जख्मों की गहरी ,खाइयाँ भी है ।
इनको महज पिछड़ी पुरानी, बात कह खारिज न कर,
मजहबी बातों में कुछ , अच्छाइयाँ भी है ।
हम आँखों से नाप लेते है, निगाहों के फासले,
मासूमियत के रंग में , चतुराइयाँ भी है ।
©---मनीष प्रताप सिंह 'मोहन'
कृपया टिप्पणी के माध्यम से अपनी अनुभूति को व्यक्त अवश्य करें।
आपकी टिप्पणियाँ हमारे लिये अति महत्वपूर्ण है।