पूछते है लोग, आखिर अब कहाँ रहता हूं मैं?
अब तो केवल चुप हूँ, कुछ नहीं कहता हूँ मैं।
'उसके साथ तेरी मुस्कुराती तस्वीर' में कहीं,
रुसवाइयों में खुद को अक्सर, ढूंढता रहता हूँ मैं।
पल पल चुभन, और दर्द के क्रूरतम आगोश में,
लहरों में तेरा अक्श, और फिर टूटता रहता हूँ मैं।
गुजरे हुए कारवां की, उडती हुई उस धूल में
बीते हुए 'एक वक्त' सा , बस छूटता रहता हूं मैं।
उस तलब , उस बेबसी की , दासतानें क्या कहूँ
खुद ही मना लेता हूँ, खुद ही रूठता रहता हूं मैं ।
बस कलम का साथ लेकर, कागजों की भीड़ पर,
धधकती ज्वालामुखी सा , फूटता रहता हूँ मैं ।
©---मनीष प्रताप सिंह 'मोहन'
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