शुक्रवार, 31 दिसंबर 2021

बीते हुए 'एक वक्त' सा , बस छूटता रहता हूं मैं।

पूछते है लोग, आखिर अब कहाँ रहता हूं मैं?
अब तो केवल चुप हूँ, कुछ नहीं कहता हूँ मैं।

'उसके साथ तेरी मुस्कुराती तस्वीर' में कहीं,
रुसवाइयों में खुद को अक्सर, ढूंढता रहता हूँ मैं।

पल पल चुभन, और दर्द के  क्रूरतम आगोश में,
लहरों में तेरा अक्श, और फिर टूटता रहता हूँ मैं।

गुजरे हुए कारवां की, उडती हुई उस धूल में
बीते हुए 'एक वक्त' सा , बस छूटता रहता हूं मैं।

उस तलब , उस बेबसी की , दासतानें क्या कहूँ
खुद ही मना लेता हूँ, खुद ही रूठता रहता हूं मैं ।

बस कलम का साथ लेकर, कागजों की भीड़ पर,
धधकती  ज्वालामुखी  सा ,  फूटता  रहता  हूँ मैं ।


                      ©---मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'

कृपया टिप्पणी के माध्यम से अपनी अनुभूति को व्यक्त अवश्य करें। 

आपकी टिप्पणियाँ हमारे लिये अति महत्वपूर्ण है।

सोमवार, 27 दिसंबर 2021

हमने भी करके देख लिया, ये इश्क गुलाबों वाला




वो मातमी मंजर था ,जलती सी चिताओं वाला ।
अश्कों की बारिशों में, चुभती सी हवाओं वाला ।

फिर बेचैनियों के दरमियां,मौसम की खबर आई

अब अर्थ खो चुका है, हर लफ्ज़ बफाओं वाला।

कांटों के जख्म हाथों पर, रुसवाईयों के दिल पर,
हमने भी करके देखा है ,ये इश्क गुलाबों  वाला।

बफा ,कसमें, और वादे, बेरंग सब ही निकले,
जैसे पन्नों में छिपा हो सूखा,फूल किताबों वाला।

अब यूं ही नहीं अंधेरा, इन वीरान बस्तियों में
बहुत दूर जा चुका है, वो शख्स चिरागों वाला ।

वक्त बदला,हवा बदली,रुख बदल गया सितारों का
अब रूबरू होना भी है, बस रस्म रिवाजों वाला।

   ©-----मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'

कृपया टिप्पणी के माध्यम से अपनी अनुभूति को व्यक्त अवश्य करें। 
आपकी टिप्पणियाँ हमारे लिये अति महत्वपूर्ण है।

गुरुवार, 3 जनवरी 2019

टुकड़ों की जिंदगी कभी , मुकम्मल न हो सकी,



मैं भीड़ में भी हूँ, और तन्हाइयाँ भी है ।

आसान नहीं जिंदगी, कठिनाइयाँ भी है ।


यादों की शाम सजाकर , बैठा मैं चाँद पर,

बादल घिरे अतीत के, पुरवाइयाँ भी है ।



जमाने की चकाचौंध, दिखावे है रोशनी के,

जितनी चमक  गहरी ,घनी परछाइयाँ भी है ।


दुनियाँ की नजर में फकत, मुस्कान मेरी आ सकी,

अंदर  दबे  है  दर्द  , और  रुसवाइयाँ  भी  है ।


टुकड़ों की जिंदगी कभी , मुकम्मल न हो सकी,

दरारें ही नहीं , जख्मों की गहरी ,खाइयाँ भी है ।


इनको महज पिछड़ी पुरानी, बात कह खारिज न कर,

मजहबी   बातों  में  कुछ  ,  अच्छाइयाँ  भी  है  ।


हम आँखों से नाप लेते है, निगाहों के फासले,

मासूमियत   के  रंग  में ,  चतुराइयाँ  भी  है ।

                    


                       ©---मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'

कृपया टिप्पणी के माध्यम से अपनी अनुभूति को व्यक्त अवश्य करें। 
आपकी टिप्पणियाँ हमारे लिये अति महत्वपूर्ण है।

मंगलवार, 27 जून 2017

किसी के बाप का कर्जा किसानों पर नहीं बाकी,

किसां जो रोटियां देता, जमाने भर को खाने की।
उसी के अन्न पर पलकर, करो बातें जमाने की।

किसी के बाप का कर्जा किसानों पर नहीं बाकी,
तुम्हारी पीढियां कर्जे में है, हर एक दाने की ।। 

लहू से सींचकर खेतों को, जो जीवन उगाता है,
जरा सी रोशनी देदो, उसे भी आशियाने की।।

खुदाओं की तरह, मेरी  अकीदत के जो वारिस है,
उन्हें आदत निराली है, हमें अक्सर रुलाने की ।।

मुझे कोई भी मुझ जैसा, मनाने वाला  हो 'मोहन'
ये ख्वाहिश है हमारी भी, कि थोड़ा रूठ जाने की ।।

ये गहरे जख्म रूहों पर, उमर भर के लिए आँसू,
यही कीमत चुकाई है, जरा सा मुस्कराने की ।।

शराफत के उसूलों पर, गुजारिश है कि जीने दो,
हमें भी क्या जरूरत है, तुम्हारे घर🏠 जलाने 🔥🔫की ।।

                        ------मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'
कृपया टिप्पणी के माध्यम से अपनी अनुभूति को व्यक्त अवश्य करें। 
आपकी टिप्पणियाँ हमारे लिये अति महत्वपूर्ण है।

बुधवार, 11 जनवरी 2017

ले चलो मुझे इस फनाह संसार से।

ले चलो मुझे इस फनाह  संसार से।
सिंधु के उस पार को, इस पार से।।

कलियाँ बनकर पुष्प, आखिर झड़ रही,
वक्त की इस बेरहम, तलवार से ।।

हूँ   तड़प   उठता ,  अकेले  में  कभी,
क्या मिलेगा जिंदगी के , सार से।।

यूँ तो काफी लोग मुझको, जानते
खुद ही हूँ अनभिज्ञ मैं , पहचान से,

करते है हमदर्द, जख्मों की दवा
मरहम देते है, नोक-ए-तलवार से।।

सुन तो रक्खा है ,मगर अब देखना,
हँस के जाते सब तेरे, दरबार से ।

'मोहन' तेरी भी, गुजर होगी नहीं,
दरबाजे को खोज, हट दीवार से।।

         ------✒© मनीष प्रताप सिंह
रचना आपको कैसी लगी कमेंट बाक्स में प्रतिक्रिया अवश्य दें।

सोमवार, 18 जुलाई 2016

मैं किसी की दया का ,भिखारी नहीं, (गुरु पूर्णिमा के अवसर पर गुरु अकीदत)



'गुरु अकीदत' का, मुझको रतन चाहिए।
हर घड़ी बस तुम्हारा, भजन चाहिए।
मैं किसी की दया का ,भिखारी नहीं,
मुझको केवल तुम्हारी , शरन चाहिए।

मेरे जीवन का तुम एक, एहसास हो।
सुख में धुँधले लगे, दुख में तुम साथ हो।
हमको मिलती रहे, बस तुम्हारी झलक,
मुझको ऐसा ही वातावरण चाहिए।

पंख भी गर हमारी उपजने लगें।
और माना कि हम खूब, उड़ने लगें।
मेरे उडने की सीमाएं महदूद हो,
उस जगह तक तुम्हारा, गगन चाहिए।

कैसे कह दें कि हमको, बचाते नहीं।
करते सब कुछ तुम्हीं ,पर जताते नहीं।
मेरा विश्वास हर भ्रम से ,मजबूत हो,
मुझको ऐसी दया की , किरन चाहिए।

गुरु अगर भ्रम में, 'मोहन' भटकने लगे।
राह चलते में गर कहिं, अटकने लगे।
भ्रम के पिंजड़े न फँस जाऊँ, सम्हारो गुरु,
ज्ञान सतगुरु ऐसा,  गहन चाहिए।

मैं किसी की दया का ,भिखारी नहीं, 
मुझको केवल तुम्हारी, शरन चाहिए।


                    ---- मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'
कृपया टिप्पणी के माध्यम से अपनी अनुभूति को व्यक्त अवश्य करें। आपकी टिप्पणियाँ हमारा मार्गदर्शन करेंगी।

मंगलवार, 28 जून 2016

किसी जिंदगी का दीपक, बुझाना नही कभी।

दबे  दर्द  से  पर्दा , उठाना  नहीं  कभी।
जख्मों को इस तरह से, दुःखाना नहीं कभी।

कोई आँसू तेरे लिए , सजा न बन जाए ,
'मोहन' को इस तरह से,  सताना नहीं कभी।

ऐ खुदा मांगू दुआ, फरियाद करता हूँ,
मेरे जख्मों का बदला उनसे, चुकाना नहीं कभी।

साविके दस्तूर तुम , मय्यत पर मेरी आओगे,
निशां जुल्म-ए-सफ्फाक के, बताना नहीं कभी।

कब्रों में रहने वाले भी, सिसकेंगे रो पड़ेंगे,
 कब्रगाह में गज़ल मेरी, गाना नहीं कभी।

महल की दिवालियों में , शिरकत के वास्ते, 
किसी जिंदगी का दीपक, बुझाना नही कभी।



....ये रचना आपको कैसी लगी? कमेंट के माध्यम से अवश्य बतायें। आपकी टिप्पणियाँ हमारा मार्गदर्शन करेंगी।

शनिवार, 4 जून 2016

कई बेगुनाह खून , चिरागों का हो गया।

वो दूर जाके चाँद, सितारों सा हो गया।
मैं काँच सा टूटा तो, हजारों सा हो गया।

हालांकि दरम्यां में बहुत, फासला न था,
दरिया सी जिंदगी के, किनारों सा हो गया।

इस वक्त ने कुछ जा़म, पिलाये है इस कदर,
हर कतरा जिंदगी का, शराबों सा हो गया।

वो बादशाही आँखें, ख्वाब-ए-सल्तनत का हश्र,
वीरान  हवेली  के ,  नजारों सा हो  गया।

जब रोटियों की तलब में मायूसियां मिलीं,
किरदार जमाने में  ,  गुनाहों सा हो  गया।

अब तो तुम्हारे महल में,  कुछ रोशनी सी है ,
कई   बेगुनाह   खून , चिरागों  का  हो  गया।

ईजाद क्या किया है, इबादत का ये  हुनर,
रब  मंदिरों की  चंद,  दिवारों  सा  हो गया।


                               -----मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'
कृपया टिप्पणी के माध्यम से अपनी अनुभूति को व्यक्त अवश्य करें। 
आपकी टिप्पणियाँ हमारे लिये अति महत्वपूर्ण है।

सोमवार, 30 मई 2016

कब तक करें भरोसा, परवरदिगार का।

किये ही दे रही है, मेरे घर को आग खा़क,
कब तक करें भरोसा, परवरदिगार का।

दिवाली के हर दिये में, उदासी की झलक है,
खत्म हो रहा है वक्त, उनके इंतज़ार का।

लगती गमों की महफिल ,हर ढलती शाम को,
छिड़ता है स्वर मधुर तब, मन के सितार का।

कहने लगे सितारे , था चाँद साथ में,
सो जाओ अब बदल गया है, रुख बयार का।

मजबूरियों की धूप में, मेरे पैर जल गये,
तुम मत बनाओ किस्सा, 'मोहन' की हार का।

अब क्या बताऐं सबको ,क्या बात हो गई?
है काम समझने का ,  खुद समझदार का।




....ये रचना आपको कैसी लगी? कृपया कमेंट करके अवश्य बतायें। आपकी प्रतिक्रिया हमारा मार्गदर्शन करेगी।

शनिवार, 21 मई 2016

नज़रों का धोखा था वो, सादिक वफा नहीं थी,

शिद्दत से उसको ढूँढा, भटका हूँ हर जगह पर, 
लेकिन न वो मिला,  मुझे जिसकी तलाश है।

चल-चल के रहगुजर में, जूते घिसे और पैर भी,
मंजिल के अब तलक हम, फिर भी न पास है।

नज़रों का धोखा था वो, सादिक वफा नहीं थी,
बस शौक है ये उनका, उनका लिबास  है।

खालिक की जुफ्तजू में, अब तो कारवां भी खो गया,
इस सफर-ऐ-आखिरत में, अब काफी हताश है।

रस्म-ए-दिवालियों में, कैसे दिये  जलाऐं,
वो आये नहीं है अब तलक, आने की आस है।

महफिल में सबके साथ में, हँसना तो महज फर्ज है,
हकीकत हमारी दुनियाँँ, काफी  उदास है।


....ये रचना आपको कैसी लगी? कृपया कमेंट करके अवश्य बतायें। आपकी प्रतिक्रिया हमारा मार्गदर्शन करेगी।

शनिवार, 7 मई 2016

भारत विकास रथ की खातिर, शिक्षको सारथी बन जाओ,

अज्ञान अंधेरी  रातों सा, इल्मी कंदील जला डालो।
 दूर अशिक्षा  करने को ,अब ईंट से ईंट बजा डालो।

कथनी से करनी तक पहुँचो,भारत माँ के आँसू पौंछो,

कंधे से कंधा मिला रहे ,और दीप से दीप जला डालो।

भारत आगे बढ़ पायेगा, पहले तुमको बढना होगा,
जो किले बनाए भ्रष्टों ने, तुम उनकी नीव हिला डालो।

बिषबृक्ष पनपता भारत में, पश्चिम के बुरे रिवाजों का,
शिक्षा से जड़ें उखाड़ो तुम, और नाम-ओ-निशां मिटा डालो।

भारत विकास रथ की खातिर, शिक्षको सारथी बन जाओ,
ये शिशु भविष्य के भारत हैं, तुम इनको पार्थ बना डालो।

गंगा के पावन पानी की, तुम्हें कसम है आज जवानी की,
या तो तस्वीर बदल दो तुम, या अपना शीश कटा  डालो।


....ये रचना आपको कैसी लगी? कृपया कमेंट करके अवश्य बतायें। आपकी प्रतिक्रिया हमारा मार्गदर्शन करेगी।

गुरुवार, 28 अप्रैल 2016

बन्द कमरे में अकेला, और मैं करता भी क्या,

दोस्तों के इस जहां में,दोस्ती ढूँढें कहाँ,
दोस्त जैसे है बहुत , पर दोस्त भी मिलता नहीं।

कारवां से दूर हो ,तन्हा रहा मैं इन दिनों,
वक्त की थामी सुई , पर वक्त भी रुकता नहीं।

पास आती सब आवाजें, दूर ही जाती गई,
एक भी तिनका बचा होता, तो मैं झुकता नहीं।

हर सवेरा, शाम होकर, रात में दम तोड़ देता,
टूटती उम्मीद पर अंजाम ,कछ मिलता नहीं।

आँसू भरी हर आँख में,खुशियाँ दिखाना शौक है,
पर उजाले में मेरा आँसू, कभी दिखता नहीं।

बन्द कमरे में अकेला, और मैं करता भी क्या,
लिखना न होती बेबसी, तो अश्क भी लिखता नहीं।



                               -----मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'
कृपया टिप्पणी के माध्यम से अपनी अनुभूति को व्यक्त अवश्य करें। 
आपकी टिप्पणियाँ हमारे लिये अति महत्वपूर्ण है।

गुरुवार, 21 अप्रैल 2016

तकब्बुर है शहर वालों को,खुद के शऊर पर (गज़ल)



माना कि तेरे शहर का,मौसम नया तो है।
मयस्सर हमारे गाँव में ,ताजा हवा जो है।

तकब्बुर है शहर वालों को,खुद के शऊर पर,
मुतमईन हूँ मैं गांव में, शर्म-ओ-हया तो है ।

हालांकि मेरी पहुँच से, वो दूर है  मगर ,
उस आसमां से कह दो, मेरा हौसला जो है।

वो चल चुके पटाखे, और बुझ चुके दिये ,
पाकर किसी गरीब का, बच्चा हँसा तो है।

अपने स्वार्थों के साँचों में,खुदाओं को ढालकर,
करता गुनाह आदमी , लाँछन खुदा  को है ।

इन्सानियत की मौत पर,कोई आँख तक न गीली हो,
'मोहन'नये जमाने  को, कुछ  हो  गया  तो  है ।

कभी शब्द रो दिए, तो कभी रो गईं मेरी आँखें,
ग़म और मेरे दरम्यां, कुछ सिलसिला तो है



                               -----मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'
कृपया टिप्पणी के माध्यम से अपनी अनुभूति को व्यक्त अवश्य करें। 
आपकी टिप्पणियाँ हमारे लिये अति महत्वपूर्ण है।

शनिवार, 16 अप्रैल 2016

अरे!अब तो मत छिपाओ, उजले कफन से ढक कर (गजल)

किस गम के गीत गाऐं ,किसको वयाँ करें।
शिकवों का जाम आखिर ,कब तक पिया करें।।

ये है यकीं कि खाक से ,मोती  नहीं निकलते,
पर खाक भी न छानें, तो करें भी तो क्या करें।

हमको हुआ मयस्सर , जीवन कबाड़खाना,
मैदान में रहते है , तूफाँ से  क्या  डरें ।

महफूज कर लिया है, मैंने प्रत्येक पत्थर,
हर फूल के बदले में पाया है, क्या   करें  ।।

खुदगर्ज है जमाना, खुदगर्ज दोस्ताना ,
खुद्दार जिंदगी है , 'मोहन'  की  क्या करें। ।

अरे!अब तो मत छिपाओ, उजले कफन से ढक कर
निशानों को कहने दो  , वे जो  कुछ वयाँ  करें।।




               .    ------मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'
कृपया टिप्पणी के माध्यम से अपनी अनुभूति को व्यक्त अवश्य करें। 
आपकी टिप्पणियाँ हमारे लिये अति महत्वपूर्ण है।

रविवार, 10 अप्रैल 2016

जो सबका 'अन्नदाता' है, जहर खाते हुये देखा।

मैंने खेतों में उम्मीदों को, पल जाते हुये देखा।
उन्हीं खेतों में उम्मीदों को, जल जाते हुये देखा।

वो ढलती शाम में खेतों की, मेंढों पर टहल करके,
किसी शायर को खेतों की, गजल गाते हुये देखा।

जमाने को नजर आया है, मंगल तक गया भारत,
जो सबका 'अन्नदाता' है, जहर खाते हुये देखा।

थी रुसवा मुफलिसी मेरी, शरीफों के जमाने में,
वफा हमदर्द लोगों की , बदल जाते हुये देखा।

जो हरदम साथ रहते थे, वो आँसू बेवफा निकले,
रखे महफूज आँखों में, निकल जाते हुये देखा ।

हमारी कोशिशें थी कुछ, खुदा की मेहरबानी थी,
जो आतिस गीर था 'मोहन', सम्हल जाते हुये देखा।

                            

                               -----मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'
कृपया टिप्पणी के माध्यम से अपनी अनुभूति को व्यक्त अवश्य करें। 
आपकी टिप्पणियाँ हमारे लिये अति महत्वपूर्ण है।

बुधवार, 30 मार्च 2016

मेरी खुद जिंदगी, बेवफा हो गयी

जिंदगी से खुशी सब, दफा हो गयी।
मौत भी कम्बख्त अब, खफा हो गयी।

उन दिनों कुछ हवाऐं, चलीं इस तरह,
जिंदगी काफी हद तक, तवाह हो गयी।

हमने भूलों को रस्ते, दिखाऐ मगर,
राह मेरी ही मुझको ,दगा दे गयी।

लोग कहते है जिसको, मेरी जिंदगी,
मौत से भी  वह बदतर, सदा से रही।

हम अकीदत के जल को, चढायें कहाँ,
मेरी खुद जिंदगी, बेवफा हो गयी।



                       -----मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'
कृपया टिप्पणी के माध्यम से अपनी अनुभूति को व्यक्त अवश्य करें। 
आपकी टिप्पणियाँ हमारे लिये अति महत्वपूर्ण है।

सोमवार, 21 मार्च 2016

मिरे खेतों को पानी का ,भरोसा दे गया बादल,

वो नंगे पांव कांटों पर ,मेरा हँसकर गुजर जाना।
राह में ठोकरें खाकर के ,गिरना और सम्हल जाना।

मेरी आँखों से कागज पर,महज टपका था इक आँसू,
नहीं मालूम है मुझको, गज़ल गीतों का बन जाना।

हसीं सपने जो आँखों में ,वो तुमने ही दिखाये थे,
महज़ वोटों की खातिर था,तुम्हारा रंग बदल जाना।

किन्हीं मजबूर आँखों में ,उजाला भर सके तो सुन,
नहीं तुझको जरूरी अब,कहीं मंदिर तलक जाना।

मिरे खेतों को पानी का ,भरोसा दे गया बादल,
किसानों की यही किस्मत, वो बारिश का मुकर जाना।

यकीनन ये शरारत भी, तो पतझड़ की रही होगी,
मेरी उम्मीद की कलियों को, चुपके से कुतर जाना।

हमारी  आँख  में  आँसू , उदासी गर  नहीं  होते,
तो मुमकिन ही नहीं 'मोहन',गज़ल गीतों का ढल पाना।



                    -----मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'
कृपया टिप्पणी के माध्यम से अपनी अनुभूति को व्यक्त अवश्य करें। 
आपकी टिप्पणियाँ हमारे लिये अति महत्वपूर्ण है।

शुक्रवार, 18 मार्च 2016

न आयेगी .....

एक दिन मैं बैठा आँगन में
दीवारों के उस पार 
क्षितिज को देख
कुछ विचार कर रहा था मन में
तभी अचानक एक चिड़िया आयी
फुदकती गाना गाती
कूड़े में से कुरेद कर कुछ खाती
फिर एक चिड़िया और आयी
एक और आयी
कुछ और आयीं
कुरेद कर कूड़ा वे खाने लगी
मुझे उनका आना अच्छा लगा
और उनपर दया भी आयी
मैंने मुट्ठी भर दाने बिखरा दिये आँगन में
सोचा कि अब जब भी कोई चिड़िया आयेगी
तो कूड़े के बजाय स्वच्छ दाने खायेगी
लेकिन मुझे क्या पता था दोस्तो
दाना डालने के बाद एक चिड़िया भी न आयेगी....


                             ------मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'
कृपया टिप्पणी के माध्यम से अपनी अनुभूति को व्यक्त अवश्य करें। 
आपकी टिप्पणियाँ हमारे लिये अति महत्वपूर्ण है।


शुक्रवार, 11 मार्च 2016

चुन -चुन कर जिंदगी के , अरमान जला देता है। गज़ल

मुफलिस को जिंदगी में , जीना भी बता देता है।
गुमां ,गुरूर, अकड़ सब, पल भर में झुका देता है ।

हों मजबूरियां या चोचले, थोड़ा सा सब्र कर,
वक़्त वो मुर्शिद है जो , हर इल्म सिखा देता है।

उजाले की ज़रा कीमत तो, तुम उस शख्स से पूछो,
चुन -चुन कर जिंदगी के  , अरमान जला देता है।

भरी महफिल में करके इल्म , वो हँसने हँसाने का,
तिल तिल हुई उस मौत का, हर जख्म छिपा लेता है।

मानू  में कैसे स्वर्ग में,कोई भी गम नहीं,
बरसात का पानी मुझे, हर राज बता देता है।

मिला है ये सिला मुझको, मेरी सादा मिजाजी का,
हर शख्स मुझे जीने का, अंदाज बता देता है।
    

                             -----मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'
कृपया टिप्पणी के माध्यम से अपनी अनुभूति को व्यक्त अवश्य करें। 
आपकी टिप्पणियाँ हमारे लिये अति महत्वपूर्ण है।