पूछते है लोग, आखिर अब कहाँ रहता हूं मैं?
अब तो केवल चुप हूँ, कुछ नहीं कहता हूँ मैं।
'उसके साथ तेरी मुस्कुराती तस्वीर' में कहीं,
रुसवाइयों में खुद को अक्सर, ढूंढता रहता हूँ मैं।
पल पल चुभन, और दर्द के क्रूरतम आगोश में,
लहरों में तेरा अक्श, और फिर टूटता रहता हूँ मैं।
गुजरे हुए कारवां की, उडती हुई उस धूल में
बीते हुए 'एक वक्त' सा , बस छूटता रहता हूं मैं।
उस तलब , उस बेबसी की , दासतानें क्या कहूँ
खुद ही मना लेता हूँ, खुद ही रूठता रहता हूं मैं ।
बस कलम का साथ लेकर, कागजों की भीड़ पर,
धधकती ज्वालामुखी सा , फूटता रहता हूँ मैं ।
©---मनीष प्रताप सिंह 'मोहन'
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19 टिप्पणियां:
आपका बहुत बहुत आभार अनीता जी।
सुंदर, सराहनीय सृजन ।
धन्यवाद जिज्ञासा जी।
सुन्दर सृजन ।
आभार ।मीना जी।
सुंदर रचना🙏
आपका आभार अंकित जी।
बहुत सुंदर ।
बहुत ही सुन्दर सृजन
नववर्ष मंगलमय हो
धन्यवाद भारती जी
धन्यवाद विश्वमोहन जी
बस कलम का साथ लेकर, कागजों की भीड़ पर,
धधकती ज्वालामुखी सा , फूटता रहता हूँ मैं ।
कलम का साथ बना रहे ।
बेहतरीन ग़ज़ल
जब आपका बहुत बहुत आभार संगीता जी।
संवेदनाओं को समेटे बेहतरीन सृजन।
नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं आपको सह परिवार जनों के।
बहुत शुक्रिया आपका , मन की वीणा जी।
सच एक आग जरुरी है जिन्दा रहने के लिए,
बहुत सुन्दर
धन्यवाद कविता जी।
बहुत बहुत सुन्दर
शुक्रिया आलोक जी
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