पूछते है लोग, आखिर अब कहाँ रहता हूं मैं?
अब तो केवल चुप हूँ, कुछ नहीं कहता हूँ मैं।
'उसके साथ तेरी मुस्कुराती तस्वीर' में कहीं,
रुसवाइयों में खुद को अक्सर, ढूंढता रहता हूँ मैं।
पल पल चुभन, और दर्द के क्रूरतम आगोश में,
लहरों में तेरा अक्श, और फिर टूटता रहता हूँ मैं।
गुजरे हुए कारवां की, उडती हुई उस धूल में
बीते हुए 'एक वक्त' सा , बस छूटता रहता हूं मैं।
उस तलब , उस बेबसी की , दासतानें क्या कहूँ
खुद ही मना लेता हूँ, खुद ही रूठता रहता हूं मैं ।
बस कलम का साथ लेकर, कागजों की भीड़ पर,
धधकती ज्वालामुखी सा , फूटता रहता हूँ मैं ।
©---मनीष प्रताप सिंह 'मोहन'
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आपका बहुत बहुत आभार अनीता जी।
जवाब देंहटाएंसुंदर, सराहनीय सृजन ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद जिज्ञासा जी।
जवाब देंहटाएंसुन्दर सृजन ।
जवाब देंहटाएंआभार ।मीना जी।
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना🙏
जवाब देंहटाएंआपका आभार अंकित जी।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर ।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंनववर्ष मंगलमय हो
धन्यवाद भारती जी
जवाब देंहटाएंधन्यवाद विश्वमोहन जी
जवाब देंहटाएंबस कलम का साथ लेकर, कागजों की भीड़ पर,
जवाब देंहटाएंधधकती ज्वालामुखी सा , फूटता रहता हूँ मैं ।
कलम का साथ बना रहे ।
बेहतरीन ग़ज़ल
जब आपका बहुत बहुत आभार संगीता जी।
जवाब देंहटाएंसंवेदनाओं को समेटे बेहतरीन सृजन।
जवाब देंहटाएंनव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं आपको सह परिवार जनों के।
बहुत शुक्रिया आपका , मन की वीणा जी।
जवाब देंहटाएंसच एक आग जरुरी है जिन्दा रहने के लिए,
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
धन्यवाद कविता जी।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंशुक्रिया आलोक जी
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