जो इंसानियत को मारे, घर-घर लहू बहाये।
वो किसने 'राम' समझे, किसने 'खुदा' बनाये।।
ये आतिश नवा से लोग ही, मातम फ़रोश हैं,
चैन-ओ-अमन का ये वतन, फिर से न डगमगाये।
घोला ज़हर किसी ने या, गलती निज़ाम की,
गुनहगार इस वतन के, यूँ ही न पूजे जायें।
उन्हें खून की हर बूंद का, कैसे हिसाब दें,
जो आँसुऔ की कीमत, अबतक समझ न पाये।
मेरी ज़िन्दगी में इतनी, मश़रूफ़ियत भर दो,
कोई ग़म का व़ाक्या अब, हमको न याद आये।
-----मनीष प्रताप सिंह 'मोहन'
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