हर तावनाक चेहरा, कालिख छिपाये रखता है ।
अन्दर से और कुछ है, बाहर से और दिखता है ।
पसीने की तो दोस्तो, तुम बात छोड़ दीजिए,
खून भी इस शहर में, पानी के भाव बिकता है ।
ये झिलमिलाती बिजलियाँ, महदूद कोठियों तक,
इस जहां की शराफत का, सच सच वयान करता है ।
भूखौं के सामने अक्सर, रोटी की बात करते है,
एक एक वोट कितनी, मेहनत के बाद मिलता है ।
इतराते हुऐ हर फूल को, तुम गौर से देखो जरा,
किसी बीज की ही लास पर, फूल-ए-गुलाब खिलता है ।
एक आदमजात महफिल में, हँसता है बहुत जोर से,
चाँद के उजाले में, आँसू के गीत लिखता है ।
---- -मनीष प्रताप सिंह 'मोहन'
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