सोमवार, 18 जुलाई 2016

मैं किसी की दया का ,भिखारी नहीं, (गुरु पूर्णिमा के अवसर पर गुरु अकीदत)



'गुरु अकीदत' का, मुझको रतन चाहिए।
हर घड़ी बस तुम्हारा, भजन चाहिए।
मैं किसी की दया का ,भिखारी नहीं,
मुझको केवल तुम्हारी , शरन चाहिए।

मेरे जीवन का तुम एक, एहसास हो।
सुख में धुँधले लगे, दुख में तुम साथ हो।
हमको मिलती रहे, बस तुम्हारी झलक,
मुझको ऐसा ही वातावरण चाहिए।

पंख भी गर हमारी उपजने लगें।
और माना कि हम खूब, उड़ने लगें।
मेरे उडने की सीमाएं महदूद हो,
उस जगह तक तुम्हारा, गगन चाहिए।

कैसे कह दें कि हमको, बचाते नहीं।
करते सब कुछ तुम्हीं ,पर जताते नहीं।
मेरा विश्वास हर भ्रम से ,मजबूत हो,
मुझको ऐसी दया की , किरन चाहिए।

गुरु अगर भ्रम में, 'मोहन' भटकने लगे।
राह चलते में गर कहिं, अटकने लगे।
भ्रम के पिंजड़े न फँस जाऊँ, सम्हारो गुरु,
ज्ञान सतगुरु ऐसा,  गहन चाहिए।

मैं किसी की दया का ,भिखारी नहीं, 
मुझको केवल तुम्हारी, शरन चाहिए।


                    ---- मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'
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