शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2016

अन्दाज-ए-वफा सूरत से, हरगिज़ न लगाया जाये।





जिंदा लोगों को ,न फिर से, लाशों मे सुमारा जाये।
ऐ खुदा खैर करो ,  वो लम्हा  न  दुवारा आये।।

जलाए है आशियाने , दो पल के उजाले ने,
मेरे  अंधेरों में कोई दीपक, फिर से न जलाया जाये।

आँखें वयान करती है , दासता -ए-मुकद्दर,
आँसू पर किसी हँसी को, बाजिव न बताया जाये।

अब तो जिंदगी का मकसद, मतलब परस्तियां है
अन्दाज-ए-वफा सूरत से, हरगिज़ न लगाया जाये।

इन गीतों में सिर्फ मेरी ,हकीकत ही वयां होगी,
इल्जाम कोई फिर से, झूठा न लगाया जाये।

सफ्फाक सितमगरों को ,सर-ए-आम सजा देदो,
'मोहन' किसी को फिर से, सायर न बनाया जाये 
     

                              ----मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'
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मंगलवार, 23 फ़रवरी 2016

वो किसने 'राम' समझे, किसने 'खुदा' बनाये।




जो इंसानियत को मारे, घर-घर लहू बहाये।

वो किसने 'राम' समझे, किसने 'खुदा' बनाये।।

ये आतिश नवा से लोग ही, मातम फ़रोश हैं,
चैन-ओ-अमन का ये वतन, फिर से न डगमगाये।

घोला ज़हर किसी ने या, गलती निज़ाम की,
गुनहगार इस वतन के, यूँ ही न पूजे जायें।

उन्हें खून की हर बूंद का, कैसे हिसाब दें,
जो आँसुऔ की कीमत, अबतक समझ न पाये।

मेरी ज़िन्दगी में इतनी, मश़रूफ़ियत भर दो,
कोई ग़म का व़ाक्या अब, हमको न याद आये।

                          -----मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'
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गुरुवार, 18 फ़रवरी 2016

गहरे काले अक्षरों से


आओ चलकर देखते है,
क्या लिखा है 
हमारे भाग्य में
उन बड़े -बड़े कमरों में
अपने अनुक्रमांक पर
बैठकर
उन सफेद पीले पन्नों में
गहरे काले अक्षरों से
देखते है क्या लिखा है हमारे भाग्य में ..
                 
                     -----मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'
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मंगलवार, 16 फ़रवरी 2016

चाँद के उजाले में, आँसू के गीत लिखता है ।


हर तावनाक चेहरा, कालिख छिपाये रखता है ।
अन्दर से और कुछ है, बाहर से और दिखता है ।

पसीने की तो दोस्तो, तुम बात छोड़ दीजिए,
खून भी इस शहर में, पानी के भाव बिकता है ।

ये झिलमिलाती बिजलियाँ, महदूद कोठियों तक,
इस जहां की शराफत का, सच सच वयान करता है ।

भूखौं के सामने अक्सर, रोटी की बात करते है,
एक एक वोट कितनी, मेहनत के बाद मिलता है ।

इतराते हुऐ हर फूल को, तुम गौर से देखो जरा,
किसी बीज की ही लास पर, फूल-ए-गुलाब खिलता है ।

एक आदमजात महफिल में, हँसता है बहुत जोर से,
चाँद के उजाले में, आँसू के गीत लिखता है ।
              
                     ---- -मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'
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शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2016

अब खून भी बहता नहीं, और जख्म भी बढते गये ।

वक्त का हर  ज़िक्र मैं, लिखता चला गया ।
हर रंज-ओ-ग़म  को आप ही, सहता चला गया ।।

इस रास्ते के दरम्यां, शायद कहीं पर छाँव हो,
'मोहन ' भरम की धूप में, जलता चला गया ।।

उन बस्तियों में आग सी, लगती चली गयी,
हवा में मेरा ज़िक्र कुछ, बहता चला गया ।।

सुकूं और मेरे दरम्यां, मुद्दत के फासले है,
थी साजिश-ए-किस्मत ,मैं  बिखरता चला गया ।।

इंसान को इंसान तो समझते थे लोग तब,
अफ़सोस है वह वक्त भी, गुजरता चला गया ।।

अब खून भी बहता नहीं, और जख्म भी बढते गये,
और दर्द शायरी में  , उतरता चला  गया ।।
                            
                    ------मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'



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मंगलवार, 9 फ़रवरी 2016

धुँधली होती तस्वीर

रेगिस्तान  के किसी कोने में 
बनाया हुआ है मैंने
अपना एक छोटा सा घर
जिसमें चारो ओर 
खिड़कियाँ और दरवाजे ही हैं।
उस घर में लगा  रखी है
एक तस्वीर
और एक गुलदस्ता
हवा के आवारा झोके 
उसमें होकर 
यूँ निकल जाते हैं
जैसे कि कुछ है ही नहीं
और छोड़ जाते है
साथ लायी हुई धूल की चादर
जो कि परत दर परत
छायी जा रही है
और धूसरित होता जा रहा है गुलदस्ता
धुँधली होती जा रही है वह तस्वीर ।

                    -----मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'



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शनिवार, 6 फ़रवरी 2016

सजायाफ्ता है हम भी, सफ्फाक उस नजर के ।

बस चल रही है जिंदगी, उस रब के नाम पर ।
उम्मीद है सुबह की,  भरोसा  है  शाम  पर ।।

घर की दर-ओ-दीवार पर, ये मेहरबां है आसमां,
कोई छत नहीं है दोस्तो ,  मेरे  मकान  पर ।।
 
मुतमईन हूँ मैं, दर्द की  दासतां  दबी  होगी,
देखो फूल भी ,मुरझा  गये है इस निशान पर ।।

वो बेमुराद माज़ी , जब जब भी याद आया,
तड़फा मैं बेतहाशा,  खुद के अंजाम पर  ।।

सजायाफ्ता है हम भी, सफ्फाक उस नजर के,
मेरी जल रही जमीं , है  धुआं  आसमान पर  ।।

कयामत के रोज वर्क से, कोई नहीं बचेगा,
कुछ हो चुके मुखातिब , कुछ है निशान पर ।।

                     ------मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन'



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सोमवार, 1 फ़रवरी 2016

ये अस्मिता की बात करते है, वो अस्मत को लुटाने बाले (गज़ल)


जख्मों को देखता हूं तो, इतिहास नजर आता है।
हर आस्तीन में छिपा , एक साँप नजर आता है।

महलों में रोशनी है, गलियों  में  बस अंधेरा,
इंसाफ इस जहां का, मुझे साफ नजर आता है।

ये अस्मिता की बात करते है, वो अस्मत को लुटाने बाले,
बस ढोंग नजर आता है, व्यभिचार नजर आता है।

जब भी हलाल होती है, दो बूंद शराफत,
मगर संदेह की ज़द में, ये सारा शहर आता है।

सारे सिकन्दरों को ,'मोहन' खबर ये कर दो,
आँधी  सा जो उठा है, तूफां सा गुजर जाता है।

मुसलसल कोशिशें करता रहा, मैं मुस्कुराने की मगर,
मेरी  जिंदगी का मकसद, हर बार बिखर  जाता है।


                                ----मनीष प्रताप सिंह  'मोहन '

रचना कैसी लगी कमेंट अवश्य करें।